"आहत है मन "

मंजुला भूतड़ा
काँप उठती है
भीतर तक रूह
थम जाती है कलम
आहत है मन ।
अखबार के मुखपृष्ठ की प्रथम पंक्ति
शर्मसार करती खबर
मासूम से दुष्कर्म
मानवता तार- तार
क्यों इतना उछ्छृंखल
उद्दण्ड हो गया मन,
ताक पर रख दिए
सारे संस्कार मापदंड ।
अधर्मी इन्सान
लूट रहा अस्मत
तोड़ डाली सभी वर्जनाएं
यह कैसी प्रगति है?
बलात्कार पर फांसी की सजा
सुकून तो देती है परन्तु,
क्यों बढ़ रहे हैं कुकृत्य
सोचने का नहीं है फर्ज?
अपराध का पुख्ता होना
लम्बी प्रक्रिया से गुजरना ,
पीड़ित पर प्रताड़ना
जैसा ही तो है ।
स्वच्छता के गूंजते
सारे दिन तराने,
क्यों नहीं करते सफाया
बेखौफ घूमते गुंडे मनमाने ।
काश,
ऐसा कुछ लिख पाते हम
मानवता का दम्भ भरने वाले,
मानव को मानव का
अर्थ समझा पाते हम ।
आहत है मन .....