माँ की सीख

मंजू गुप्ता, नवी मुंबई
डोली में विदा होते हुए आधुनिकता में रंगी बेटी माँ से गले मिलकर यूँ बोली -
" माँ ! इन कीमती आंसुओं को छलका कर दुखी न हो .मैं तो 21 वीं सदी में पली - बढ़ी हुई हूँ . तेरे ही संस्कारों का प्रतिरूप हूँ . "
माँ बेटी के तसल्लीपूर्ण मीठे वचनों को सुनकर खुश हुई .
बेटी पुनः माँ से बोली ,
" ससुरालवालों की ख़ुशी में मैं अपनी ख़ुशी समझूँगी . अगर वे दिन को रात कहेंगे तो मैं रात कहूँगी. '
सिसकते हुए माँ बोली , ' बेटी ! यह सहिष्णुता और सहने का धर्म का बड़ा कठिन तप है . "
बेटी माँ के आँसू पौंछते हुए बोली , " माँ ! चिंता न कर. तुमने ही तो सीख दी है कि पति- पत्नी का मिलन आत्मा - परमात्मा का मिलन होता है . पति को मैं परमात्मा मानूँगी . पति घर को स्वर्ग बनाऊँगी . सास - ससुर , जेठ - देवर और नंदों को प्रेम की गंगा में नहलाकर उन्हें स्वर्ग का रास्ता दिखाऊँगी ."
यह सुन के विदुषी माँ ने समझाते हुए अपनी लाडली से कहा ,
" मेरी लाडो ! ससुराल ही तुम्हारा अपना घर है. संस्कारों की नींव पर ही स्वर्ग -सा सुंदर घर बनाना है . जिस प्रेम , स्नेह , त्याग से सीप में अनमोल , कीमती , गुणकारी मोती पलता है . उसी तरह तुम अपने सास - ससुर , देवर - जेठ , ननदों पर सीप - सा अगाध स्नेह बरसा के सबके दिलों में कीमती मोती बन के कान्तिमान होना . " आंसूओं को ढुल्काते हुए बेटी ने माँ को हाँ में अपनी गर्दन हिला के अपनी सहमती जतायी और डोली में विदा हो गयी .