
-राकेश अचल

राजनीति के नए शब्दकोश को देखते हुए लगने लगा है कि राजनीति में आने वालों को अब ज्यादा श्रम नहीं करना पड़ेगा। वे कुछ दिन के लिए टपोरियों के साथ रहकर ही सब कुछ सीख सकते हैं।
मेरी याददाश्त में राजनीति का पतन तो बहुत पहले से दर्ज है लेकिन राजनीति शेरों से चलती हुई कुत्तों तक पहुँच जाएगी ये मैंने कभी नहीं सोचा था।शायद ही किसी और ने भी ऐसा नहीं सोचा होगा। वन्यप्राणियों के अलावा सरी-सर्पों को तो राजनीति में अंगीकार किया था लेकिन वे सब संसदीय माने जाते थे। अब शब्दकोश में असंसदीय कुछ बचा ही नहीं है।
मुझे तो पता भी नहीं था कि मध्यप्रदेश के पूर्व झमुख्यमंत्री कमलनाथ ने हमारे राज्यसभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया को अशोकनगर में ‘कुत्ता’ कह दिया है।अगर मुझे पता होता तो मैं यह आलेख आज नहीं बल्कि बहुत पहले लिखकर कमलनाथ को नाथने की कोशिश कर चुका होता। यह मेरी लापरवाही है। मुझे तो सिंधिया के भाषण से पता चला कि कमलनाथ ने उनके लिए कुत्ता शब्द का इस्तेमाल किया। कमलनाथ पहले ही अपने आयटम शब्द के इस्तेमाल के लिए निंदनीय घोषित हो चुके हैं। अब उन्होंने कुत्ता शब्द का इस्तेमाल कर अपने आपको सचमुच भाषा के दलदल में कमर तक उतार लिया है। मुझे तकलीफ यह है कि सिंधिया भी कमलनाथ की शब्दावली को अंगीकार कर रहे हैं।
आपको याद होगा कि मैंने कुछ दिन पहले ही लिखा था कि कुछ लोग हैं जो सिंधिया को लगातार उकसा रहे हैं और इसी के चलते उन्होंने पहले कांग्रेस छोड़ी और अब भाजपा में भी वे ‘एको अहम्’ का नारा देने की गलती कर रहे हैं। सिंधिया को उकसाने यानी कि उत्तेजित करने वाले कांग्रेस में तो हैं ही भाजपा में भी हैं,जो चाहते हैं कि सिंधिया आप से बाहर जाएँ और अपने पांवों पर खुद कुल्हाड़ी मार लें। मजे की बात यह है कि सिंधिया ऐसा करते जा रहे हैं। उनका हर नया बयान उनके खिलाफ जा रहा है।
मैंने सिंधिया परिवार की तीनों पीढ़ियों को राजनीति करते देखा है। राजमाता विजयाराजे सिंधिया तो सौम्यता की प्रतीक थीं ही, उनके पुत्र माधवराव सिंधिया ने भी शालीनता कि अपनी पारिवारिक रिवायत को कायम रखा था। मुझे याद नहीं आता कि राजमाता ने कभी भी अपनी धुर विरोधयों के लिए भी कोई हल्का शब्द इस्तेमाल किया हो। माधवराव सिंधिया ने भी कभी ये गलती नहीं की जो अब ज्योतिरादित्य सिंधिया कर रहे हैं। एक समय मैंने माधवराव सिंधिया से सरदार आंग्रे और दिग्विजय सिंह के बारे में कुछ न कुछ सख्त बोलने के लिए कहा था लेकिन माधवराव सिंधिया ने साफ़ इंकार कर दिया। उन्होंने कहा था कि हम अपने विरोधियों का नाम तक लेना पसंद नहीं करते,उनकी निंदा तो दूर की बात है।
कांग्रेस छोड़ने से पहले तक ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी इस रिवायत को निभाया था। उन्होंने तमाम बेचैनी के बावजूद कभी भी दिग्विजय सिंह या कमलनाथ के लिए कठोर शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया था। वे गुस्से में आकर भी कभी किसी का नाम नहीं लेते थे लेकिन कांग्रेस छोड़ने के बाद शायद उन्होंने अपनी रिवायत भी छोड़ दी है। अब वे न सिर्फ अपने विरोधियों पर बरस रहे हैं बल्कि ‘टाइगर’,’कौवा’ और अब ‘कुत्ता’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी खुलेआम कर रहे हैं। राजनीति में शुचिता के लिए कुछ ही परिवार जाने जाते हैं लेकिन अब लगता है कि वे भी लीक छोड़ना चाहते हैं। ज्योतिरादित्य से पहले न कभी यशोधरा राजे ऐसी बहकीं हैं और न बसुंधरा राजे।
राजनीति में सांप, गिरगिट और मेंढक का प्रवेश पुराना था। बाद में इसमें शेर और गीदड़ भी आ गए। हाथी तो शुरू से ही थे लेकिन राजनीति ने बाद में गधों और घोड़ों को भी अपना बना लिया। अब यह उदारता इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि कौवों से होती हुई कुत्तों तक आ पहुंची है। इसका अंत कहाँ होगा भगवान ही जानता है। राजनीति के नए शब्दकोश को देखते हुए लगने लगा है कि राजनीति में आने वालों को अब ज्यादा श्रम नहीं करना पड़ेगा। वे कुछ दिन के लिए टपोरियों के साथ रहकर ही सब कुछ सीख सकते हैं।
मुझे लगता था कि भाजपा में जाकर आदमी सुसंस्कृत हो जाता है लेकिन ये मेरा भरम था। राजनीति किसी को सुसंस्कृत करती ही नहीं है बल्कि उसके संस्कारों को पलीता लगा देती है। भाजपा में संवित पात्रा जैसे घोर भाषावीर बैठे हैं। ताजा उदाहरण ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। कमलनाथ तो संजय गांधी ब्रिगेड का उत्पाद हैं इसलिए उनसे तो मै कोई उम्मीद करता ही नहीं था किन्तु सिंधिया ने मुझे निराश किया है। मेरी निराशा का कारण मेरा सिंधिया घराने से कोई जाती रिश्ता नहीं है, इसकी वजह केवल संस्कार हैं। भाषा का संस्कार हर किसी को अच्छा लगता है। हमने तो बचपन से पढ़ा और सीखा है कि -ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय, औरन को शीतल करे,आपहुं शीतल होय।’
लेकिन यहां उलटा हो रहा है। भाई लोग मन का आपा खोकर खुद भी जल रहे हैं और औरों को भी जला रहे हैं। लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है। या तो भाजपा में अब कोई,किसी को हटकने वाला नहीं रहा या फिर लोग खुद भटक रहे हैं। चुनाव आयोग को तो भाषा का ज्ञान है ही नहीं। वो कब,क्या करता है कोई नहीं जानता। बिना नख-दन्त के होते हुए भी वह अपने मसूढ़ों से दांतों और नाखूनों का काम लेने की कोशिश करता है। किसी की जुबान पर ताला लगाना अदालतों के बूते की भी बात नहीं है। यह काम तो केवल संस्कार ही कर सकते हैं। दुर्भाग्य से संस्कार अवकाश पर हैं।
मेरी ईश्वर से एक ही प्रार्थना है कि वो जैसे भी हो सियासत की भाषा को भ्रष्ट होने से बचा ले .इसके लिए मै सभी व्रत,उपवास ,भजन,पूजन करने को तैयार हूँ क्योंकि मैंने पढ़ रखा है कि वाणी ही सभी आभूषणों का आभूषण है। आपने भी पढ़ा ही होगा-‘केयूराः न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला:। न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजा:। वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते। क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥
आज मध्यप्रदेश सहित अनेक राज्यों का स्थापना दिवस भी है,इस अवसर पर मै सभी को बधाइयां और शुभकामनाएं देते हुए पुन: आग्रह करता हूँ कि भाषा के संस्कार पर ध्यान दें। भाषा केवल राजनीति के लिए ही नहीं समाज और देश के लिए भी बहुत जरूरी चीज है .बिना भाषा के सब अकारथ है।वैसे भी हमरी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है, हम अब तक राजभाषा से काम चला रहे हैं।
( अचल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं।)